कहानी संग्रह >> कुछ कुछ अपना कुछ कुछ अपनासुबोध श्रीवास्तव
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गरिष्ठ साहित्यिक वातावरण की ऊब और बोझिलता से अलग सीधी-साधी कहानियां।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत संग्रह की कहानियां अपनी संरचनात्मक बुनावट में संवेदना और
सामाजिक प्रतिबद्धता का सुंदर संतुलन प्रस्तुत करती हैं। इन कहानियों में
लेखक की वृत्ति माननीय तनावों की अपेक्षा सामाजिक तनावों की ओर जाने में
अधिक है। किंतु इनकी विशेषता यह है कि ये व्यक्ति की अस्मिता को समाज के
संदर्भ में बौना या यांत्रिक रूप से चित्रित नहीं करतीं, बल्कि उसके छोटे
छोटे सुख-दुख को अनुभव के स्तर पर पाठक के साथ बांटती चलती हैं। उसको
अनुभूति और संवेदना के स्तर पर अपने कथ्य से बांध सकने की सामर्थ्य रखती
हैं।
आज की कहानी में जहां कथ्य बोझिल और शिल्प संप्रेषणीयता को बाधित करने की हद तक नाटकीय और प्रयोगशीलता का आग्रह लिये होता जा रहा है, जहां ये सीधी-साधी कहानियां पाठकों को फिर कहानी की उस परंपरा की याद दिलाती हैं जिसमें कहानी का सबसे बड़ा युग उसमें कहानीपन का होना होता था।
प्रस्तुत संग्रह की ये कहानियां गरिष्ठ सहित्यिक वातावरण की ऊब और बोझिलता से अलग पाठक को अत्यंत अपनेपन से, उसे अपने आसपास की उसकी परिचित दुनिया से पुनर्परिचय कराती हैं-एक नयी दृष्टि से, एक नये दृष्टिकोण से। इसलिए यदि फ़ुटपाथ पर चढ़ते-उतरते, बस या रेलगाड़ी में सफ़र करते, पान के ठेले या चाय के टपरे से गुज़रते हुए, किसी दफ़्तर, हाट-बाजार या चौराहे पर आपका कंधा इनके किसी पात्र से टकरा जाये तो विस्मय की बात नहीं होगी।
आज की कहानी में जहां कथ्य बोझिल और शिल्प संप्रेषणीयता को बाधित करने की हद तक नाटकीय और प्रयोगशीलता का आग्रह लिये होता जा रहा है, जहां ये सीधी-साधी कहानियां पाठकों को फिर कहानी की उस परंपरा की याद दिलाती हैं जिसमें कहानी का सबसे बड़ा युग उसमें कहानीपन का होना होता था।
प्रस्तुत संग्रह की ये कहानियां गरिष्ठ सहित्यिक वातावरण की ऊब और बोझिलता से अलग पाठक को अत्यंत अपनेपन से, उसे अपने आसपास की उसकी परिचित दुनिया से पुनर्परिचय कराती हैं-एक नयी दृष्टि से, एक नये दृष्टिकोण से। इसलिए यदि फ़ुटपाथ पर चढ़ते-उतरते, बस या रेलगाड़ी में सफ़र करते, पान के ठेले या चाय के टपरे से गुज़रते हुए, किसी दफ़्तर, हाट-बाजार या चौराहे पर आपका कंधा इनके किसी पात्र से टकरा जाये तो विस्मय की बात नहीं होगी।
भूमिका
समकालीन हिंदी कहानी में बेचने-बिकने की स्पर्धा से बाहर रह कर जो कथाकार
अनवरत लिखते रहे हैं, उनमें सुबोध कुमार श्रीवास्तव का नाम अग्रपंक्ति में
है। लगभग एक-तिहाई सदी का उनका रचना-समय उनके दो उपन्यासों तथा तीन कहानी
संग्रहों के माध्यम से हमारे सामने आता रहा है। धंधई आलोचकों अथवा साहित्य
के माहिर मठाधीशों के भूगोल के परे जा कर ऐन पाठकों के लोक में जिन
कहानीकारों ने अपने लिए सुनिश्चित ‘स्पेस’ बनायी है,
सुबोध
उन्हीं में से हैं, उनकी कथा में अपने बहाने औरों की, औरों के बहाने
आप-बीती जिस भांति रची-बसी, गुंथी-गुनी मिलती है, भावक उनसे अपना सहज
तादात्म्य बना लेता है।
सुबोध कुमार श्रीवास्तव मौजूदा शोषक व्यवस्था के हाथों फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाने वाले निहत्थों, अशक्तों और पीड़ितों के कथाकार हैं, और इस अर्थ में वे गहरे राजनीतिक आशयों के गल्प के सशक्त लेखक हैं। स्वतंत्र भारत में एक तरफ तो वे परजीवी नागरिक हैं जो समस्त सुविधाओं के सहारे दो दो हार्ट अटैक के बाद भी ठाठ से जीते हैं, और दूसरी तरफ वे मेहनतकश हैं जो तमाम अभावों, विपन्नताओं एवं संघर्षों की जानलेवा चपेट में दम तोड़ते जाते हैं, अकाल मृत्यु का शिकार होते रहते हैं। वर्तमान समाज के इन अंतर्विरोधों, विषमताओं और यंत्रणाओं में बेराहत पिट रहे पात्रों के साथ वे मात्र हमदर्दी दिखा कर लिखते हों, ऐसा नहीं है। वे तो अपने रचनाकार को अपने पात्रों के साथ एकमेक कर देने वाले लेखक हैं। सुबोध के गल्प में मन पिघला देने वाले भावुक वाक्य और ऐसे वाक्यों से पिघलने मन, दोनों ही प्रचुरता में हैं। यह बात इसलिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि इधर एक छद्म बौद्धिकता के शुष्क दबाव में हमारे लेखकों ने भावुकता को लगभग दरकिनार कर रखा है। सुबोध हैं तो अर्थशास्त्र के अध्यापक, लेकिन अपनी कृतियों में वे समाजशास्त्र के ईमानदार अध्येता और अध्यापक दोनों ही रूपों में मिलते हैं।
अपने ईर्द-गिर्द की कथा को कहानियों में बुनने का कठिन काम अपने अंचल के व्यापक जीवन-व्यापार को सामने रख कर ही सुबोध ने संभव किया है। इसी कारण जहां वे छोटे से नगर कटनी के कहानीकार बने रहते हैं, वहीं समकालीन कथा के परिदृश्य में एक बहु-विस्तृत भूखंड पर कब्जा भी कर सके हैं। उनका विश्वास है, और सही विश्वास है कि परिवेश के साथ रचना का रिश्ता तो हर काल में बना रहता है, और उत्तर-आधुनिकता के वाग्जाल के परे आज भी वह सच की तरह कायम है। हमारे दूरदराज के छोटे-शहरों, कस्बों देहातों और वनांचलों में विकसित होने वाले मानवीय संबंधों तक उत्तर-आधुनिक जुलमों की न तो पैठ है, और न ही पकड़। अर्नेस्ट हेमिंग्वे के एक कथन को याद करते हुए मैं कहूँगा कि सामाजिक वास्तविकताओं के गुस्सैल सांड़ के नुकीले सींगों के सामने साहस के साथ डटे रहने का हौसला सुबोध कुमार श्रीवास्तव में है। दुस्सह स्थितियों को झेलती आम मनुष्य ज़िंदगी का हाहाकार और प्रगतिशील कहानी का उनके प्रति जो दायित्व है, उसे उठाने वाले कथाकार वे हैं। परतों के पार, तहों तक जा कर वे आदमी की तकलीफ और तस्वीर उकेरते हैं। वे पिछड़े और पिछड़ते जा रहे रहवासी इलाकों की इंसानी हालत को बारीकी से जांचते-पड़तालते, निरखते-परखते तो हैं ही, अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक अनुभव के कच्चे माल को मौलिक तथा कलात्मक शक्ल दे कर, उसे कहानी में तबदील करने की जरूरी जिम्मेदारी भी निबाहते हैं।
‘कब आयेगा तीसरा हार्ट अटैक’ (हंस, जून, 1992) कहानी में सुबोध कदाचित् अपनी कहानियों के लिए ही यह आत्म-कथन रखते हैं-बाद में भी मैंने अलंकार पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। मुझे यह जीवन और इसकी कटुता हमेशा ही अलंकार युक्त लगती है। स्पष्ट है कि कहानी को बाह्य उपकरणों से अलंकृत करने के बजाय वे जीवन-यथार्थ के स्वाभाविक अलंकारों से सजी रचना करने में यकीन रखते हैं। जिन लिखने वालों ने भावुकता को निरा खोटा समझ कर तज ही दिया है उनकी कहानियों को पाठक पचा ही नहीं पाता। मगर सुबोध, जो शिल्प की तराश के प्रति किस्म की अतिरिक्त सजगता नहीं बरतते, को अपनी गल्प-रचना से पाठक-मन को जुड़ा रखने के लिए कोई देशी व्यायाम, विदेशी एरोबिक्स या मिश्रित कसरतें करने की विवशता में पसीना नहीं बहाना पड़ता। उनकी रचना पाठक को बिना ठहरे पढ़ने के लिए एक आत्मीय आमंत्रण देती चलती है। उन्होंने इस संग्रह की कहानियों तक की अपनी सृजन-यात्रा में न केवल अपनी कहानी भाषा तय की है, मुहावरा बनाया है, बल्कि अदायगी और किस्सागोई का जाती अंदाज भी रचा है। इन्हीं संघटकों के ठोस आधार पर उनकी कहानी का स्थापत्य ऊंचा उठता है।
विज्ञापननुमा रंगीन मीडियाई समीक्षा के टुकड़ों में प्रगट अदाओं-अंगड़ाइयों के सहारे बौद्धिक आतंक सिरजने वाले लेखक पाठक को अपना लिखा पढ़ने के लिए ललचा भले ही लेते हों, लेकिन पाठक कितने जल्दी ऊब कर, पाठ छोड़ कर चल देगा, यह तमीज इन स्टार-कथाकारों में शायद नहीं है। माना कि इन सितारा-लेखकों ने नवमाध्यमो से फूट पड़ा रहे बाजारवाद की धमकी और धमाकों को तुरंत अपना लिया है, सतत प्रचार, प्रभावी पैकेजिंग, कुशल मार्केटिंग और प्रायोजक संस्थाओं का पल्लू पकड़ कर बाजार में पांव जमा लिये हैं, अपनी ब्रांड और माल खपाने की व्यवसायिक चतुराई दिखा दी है, और मुनाफे का बाजार हथिया लिया है। पाठकों का सहज रिश्ता अब भी सुबोध जैसे लेखकों के साथ जुड़ा हुआ है, जो कस्बों की कराहती प्राक्-आधुनिक जिंदगी का जायजा लेते हुए, व्यवस्था की नब्ज़ टटोलते हुए सादगी के साथ हिंदी की जातीय कहानी ही लिख रहे हैं। वे कहानी के सुपर मार्केट में कोई शक्तिमाननुमा पराक्रम दिखाने नहीं घुसते। अपनी विचारात्मक ऊर्जा और रचनात्मक मनीषा पर सुबोध को पूर्ण विश्वास है। इसी संग्रह की एक कहानी में कैरम खेलने के गुर के बहाने वे स्पष्ट करते हैं-शुरू से ही क्वीन के पीछे पड़ जाओगे तो अच्छा कैरम खेल नहीं पाओगे। जाहिर है कि सुबोध कुमार श्रीवास्तव कहानी के बाजार में कामयाबी की क्वीन जीत लेने से ज्यादा यकीन अच्छा लिखते रहने में करते हैं।
आदमी की हंसी गायब क्यों हो जाती है- ऐसे सवाल, ऐसी फिक्रें हैं, जो सुबोध को उद्वेलित करती हैं। कुछ ही दशकों पूर्व के सरल पुराने बाड़े को आज की बाहरी भव्यता वाली इंद्रपुरी में बदला हुआ देखना उनके लिए एक कष्टप्रद अनुभव है, जो उन्हें अतीत में ढकेल देता है। स्मृतियां और पांच दशकों का कालखंड उन्हें रह रह कर वापसी सफर में खींचता है। पूर्वजों की गरिमा के प्रति विस्मय और आदर उनमें है। ‘कुछ कुछ अपना’ (जनसत्ता, 20.02.2001) में यह खासे खरेपन के साथ उभरा है। अपने बचपन और बाल-सखाओं को याद रखने वाला उनका कथानायक, अपने बालपन के नायकों को चालीस साल बाद भी नायक ही पाता है। काल उनके कद को छोटा नहीं कर पाया। बूढ़े हो गये मगर वे बौने हो जाने से इनकार करते रहे। यदि सुबोध आज की मूल्यहीनता के बरक्स पुराने जर्जर से मूल्य भी बेहतर लगते हैं तो यह किसी मोह के चलते नहीं है। यह उनके अपने अनुभवों का निखोट निचोड़ है। आज की विखंडित मूल्यहीन, बाजारू जटिलताओं की तुलना में वे पुरानेपन की सादगी और विपन्नता को अच्छा समझते हैं। इसलिए इस संग्रह की कई कथाओं में उनका कथानायक उन जगहों, दोस्तों और दिनों की खोज में निकलता है जो चार-पांच दशक पीछे छूट गये हैं। जाहिर है कि पुरानी चीजों के साथ-साथ पुराना वक्त भी कभी पुराना और फीका नहीं पड़ता।
एक प्राचीन चीनी दार्शनिक का यह कथन भौगोलिक सीमा लांघ कर सुबोध की कहानियों में बोलता है-वे पुराने लोग सबसे ज्यादा अंधकारमय और हत्यारे वक्त में जिये, फिर भी उनसे ज्यादा खुशमिजाज और दोस्ताना लोग दुबारा नहीं हुए। कहानी के एक वाक्य पर ठहरें जिस मकान में हमारा लड़कपन बीतता है, हम उसे कभी भूल नहीं पाते। यह मकान मात्र शाब्दिक अर्थ ईंट, गारे, काठ का मकान नहीं है। इसके बनाव में अनेक तत्त्व शामिल हैं। आज के आपाधापी भरे मूल्यहीन जीवन में संत्रस्त आदमी, गहरी नींद की निश्चिंतता से भरपूर बीते हुए फक्कड़ दिनों की याद करता है। उन दिनों के रेत से बने चमकीले पत्थरों से अनमोल दिनों की याद। केंचुए सी रेंगती सुस्त जिंदगी के अपने मजे की याद। बचपन के समुद्र जैसे गहरे और रहस्य भरे दिनों में उतरना इस कथाकार को बहुत भाता है। इन कहानियों में नायक बड़ा भाई नहीं है, बड़ा भी नहीं है। अकसर उसे छुट्टन या छोटे कह कर बुलाया जाता है। सुबोध ईमानदारी के साथ वर्ग विभाजन में छोटे या हेय कहलाने वालों का पक्ष संभाले रहते हैं।
सुबोध छोटी कथा स्थिति को कहानी बना कर पेश करने वाले कथाकार नहीं हैं। वे लंबी कहानी वाले हैं, वरन् एक सीमा तक उनकी रचना का चरित्र औपन्यासिक होता है। ‘पानी के लिए’ (जनसत्ता, 22.03.98) में भी यादों के अलबम से एक बेहतरीन कालखंड लिया गया है जिसमें बचपन है और कस्बाई जिंदगी के चकमक पत्थर जैसे जादू भरे दिन हैं। दिल को झकझोर देने वाली रुलाई है। वे जिंदगी और दुनिया को पहचानने के बेजोड़ दिन थे जो आगे की लड़ाई लड़ने की जमीन पुख़्ता कर रहे थे। ‘आज मुझे कह लेने दो’ (जनसत्ता) में कथानायक बाबूजी हैं जिन्हें अन्याय बर्दाश्त नहीं होता था, वे उसका खुलकर प्रतिरोध करते थे। इस कहानी में प्रशासकों-/नौकरशाहों का चेहरा उघड़ता है। कलेक्टर पर भीड़ से आने वाला एक नन्हा सा पत्थर फायरिंग के निर्मम आदेश में बदल जाता है और प्रदर्शनकारियों में से दो लोगों को मौके पर ही मार देता है। एक होनहार युवक की आंखें भी चली जाती हैं।
‘मम्मी-पापा’ (वर्तमान साहित्य) में गरीब मजदूर लोग हैं, जिनके लिए स्वाद मुंह में बैठी जीभ तय नहीं करती, उनके लिए स्वाद पेट में होता है, मगर शहर की मम्मी-पापा संस्कृत ने उनके भाषाई संसार का भी अतिक्रमण कर लिया है। ‘महालक्ष्मी का हाथी’ (वागर्थ, मार्च-अप्रैल, 95) कुम्हारिन काकी की शक्ल में अपनी लड़ाई खुद लड़ता गरीब है। उसके शब्दों में दर्द का पहाड़ भी था और मेहनत का करिश्मा। यह वाक्य सुबोध के लेखन पर भी सटीक बैठता है। अनचीन्ही चिरैया की तरह फुर्र हो गये बचपन के दिन यहां भी हैं। ये तमाम कहानियाँ बताती हैं कि किस तरह लेखक सहज कहानी को व्यवहारिक रूप दे देता है। हाशिये पर पड़ा जीवन उसकी लेखकीय संवेदना को लगातार चुनौती देता प्रतीत होता है और उसके यत्नपूर्वत संचित अनुभव कहानी में ढल जाते हैं। 1996 की श्रेष्ठ हिंदी कहानियां में प्रख्यात कथाकार महीप सिंह द्वारा सम्मिलित की गयी ‘आवर्त दशमलव’ जो पहल में प्रकाशित हुई थी, 6 दिसंबर, 92 के उत्तरकाल की एक मर्मस्पर्शी कथा है। ‘बिन बाप के’ (कहन-3) व्यंग्य की तीखी धार, पुलिस के कदाचार और सर्वहारा बच्चों की बेचारगी, असहायता का बयान है। ‘धक्का’ (पहल-42) में छोटी-छोटी लड़ाइयों और मामूली हार-जीतों के बीच लड़ रही मजदूरनी है, राशन दुकान से एक लीटर मिट्टी का तेल ले लेने में उसका विजय भाव देखते बनता है।
वह अपनी अनुभव-जनित वर्गीय समझ से लैस भी है। कस्बाई लुनाई और आंचलिक भोलेपन में लिपटी ये कहानियां हैं जिनमें कस्बाई प्रेम घड़े भर भर कर उड़ेला गया है।
इन कहानियों से गुजरते हुए आप पायेंगे कि इनके लेखक में एक स्वाभाविक तीखापन, सादा ‘व्यंग्य-बोध, स्पष्ट राजनैतिक परिप्रेक्ष्य, उपेक्षितों-वंचितों के प्रति सहज संवेदना के साथ साथ सुचिंचित और पुष्ट पक्षधरता है। साथ ही कथा-लेखन में निहित जो अतिरिक्त अनुशासन की मांग होती है, वह भी सुबोध में है। यह कथाशिल्पी कहन-कौशल या कथानक के करिश्माई कायाकल्प की चाह में न तो उत्तर-आधुनिक मुद्राएं ओढ़ता है, न ही पत्रकारिता या कविता के सफल अवयवों-तत्त्वों से कहानी का घोल बनाता है। वह दृश्य-माध्यमों के क्षणिक प्रभावों से आतंकित नहीं है, न ही बाजारवाद के लुभावने फरेब उसे फांस पाये हैं। पश्चिमी या वैश्विक मानदंडों की चाबुक खा कर अटपटी रफ्तार में दौड़ पड़ने वाला कथाकार भी यहां नहीं है। नतीजतन सुबोध की कहानियों में कहानीपन का त्याग नहीं है। उनकी कथा रचना के ताने-बाने में ही नहीं, उसके समग्र प्रभाव में भी कहानीपन साफ चमकता है। हिंदी की जातीय अस्मिता और परंपरा की पहचान की अनेक कहानियों से हम और पाठकगण भली भांति परिचित हैं। संघर्ष, द्वंद्व, सामाजिकता-बोध जनवादी समझ और यथार्थवादी दृष्टि मिल कर सुबोध की ताकत बनाते हैं। अपनी प्रक्रिया में ही अपना अर्थ अर्जित करने वाली कथा-सर्जना मानो सुबोध की प्रकृति में है।
सुबोध कुमार श्रीवास्तव मौजूदा शोषक व्यवस्था के हाथों फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाने वाले निहत्थों, अशक्तों और पीड़ितों के कथाकार हैं, और इस अर्थ में वे गहरे राजनीतिक आशयों के गल्प के सशक्त लेखक हैं। स्वतंत्र भारत में एक तरफ तो वे परजीवी नागरिक हैं जो समस्त सुविधाओं के सहारे दो दो हार्ट अटैक के बाद भी ठाठ से जीते हैं, और दूसरी तरफ वे मेहनतकश हैं जो तमाम अभावों, विपन्नताओं एवं संघर्षों की जानलेवा चपेट में दम तोड़ते जाते हैं, अकाल मृत्यु का शिकार होते रहते हैं। वर्तमान समाज के इन अंतर्विरोधों, विषमताओं और यंत्रणाओं में बेराहत पिट रहे पात्रों के साथ वे मात्र हमदर्दी दिखा कर लिखते हों, ऐसा नहीं है। वे तो अपने रचनाकार को अपने पात्रों के साथ एकमेक कर देने वाले लेखक हैं। सुबोध के गल्प में मन पिघला देने वाले भावुक वाक्य और ऐसे वाक्यों से पिघलने मन, दोनों ही प्रचुरता में हैं। यह बात इसलिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि इधर एक छद्म बौद्धिकता के शुष्क दबाव में हमारे लेखकों ने भावुकता को लगभग दरकिनार कर रखा है। सुबोध हैं तो अर्थशास्त्र के अध्यापक, लेकिन अपनी कृतियों में वे समाजशास्त्र के ईमानदार अध्येता और अध्यापक दोनों ही रूपों में मिलते हैं।
अपने ईर्द-गिर्द की कथा को कहानियों में बुनने का कठिन काम अपने अंचल के व्यापक जीवन-व्यापार को सामने रख कर ही सुबोध ने संभव किया है। इसी कारण जहां वे छोटे से नगर कटनी के कहानीकार बने रहते हैं, वहीं समकालीन कथा के परिदृश्य में एक बहु-विस्तृत भूखंड पर कब्जा भी कर सके हैं। उनका विश्वास है, और सही विश्वास है कि परिवेश के साथ रचना का रिश्ता तो हर काल में बना रहता है, और उत्तर-आधुनिकता के वाग्जाल के परे आज भी वह सच की तरह कायम है। हमारे दूरदराज के छोटे-शहरों, कस्बों देहातों और वनांचलों में विकसित होने वाले मानवीय संबंधों तक उत्तर-आधुनिक जुलमों की न तो पैठ है, और न ही पकड़। अर्नेस्ट हेमिंग्वे के एक कथन को याद करते हुए मैं कहूँगा कि सामाजिक वास्तविकताओं के गुस्सैल सांड़ के नुकीले सींगों के सामने साहस के साथ डटे रहने का हौसला सुबोध कुमार श्रीवास्तव में है। दुस्सह स्थितियों को झेलती आम मनुष्य ज़िंदगी का हाहाकार और प्रगतिशील कहानी का उनके प्रति जो दायित्व है, उसे उठाने वाले कथाकार वे हैं। परतों के पार, तहों तक जा कर वे आदमी की तकलीफ और तस्वीर उकेरते हैं। वे पिछड़े और पिछड़ते जा रहे रहवासी इलाकों की इंसानी हालत को बारीकी से जांचते-पड़तालते, निरखते-परखते तो हैं ही, अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक अनुभव के कच्चे माल को मौलिक तथा कलात्मक शक्ल दे कर, उसे कहानी में तबदील करने की जरूरी जिम्मेदारी भी निबाहते हैं।
‘कब आयेगा तीसरा हार्ट अटैक’ (हंस, जून, 1992) कहानी में सुबोध कदाचित् अपनी कहानियों के लिए ही यह आत्म-कथन रखते हैं-बाद में भी मैंने अलंकार पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। मुझे यह जीवन और इसकी कटुता हमेशा ही अलंकार युक्त लगती है। स्पष्ट है कि कहानी को बाह्य उपकरणों से अलंकृत करने के बजाय वे जीवन-यथार्थ के स्वाभाविक अलंकारों से सजी रचना करने में यकीन रखते हैं। जिन लिखने वालों ने भावुकता को निरा खोटा समझ कर तज ही दिया है उनकी कहानियों को पाठक पचा ही नहीं पाता। मगर सुबोध, जो शिल्प की तराश के प्रति किस्म की अतिरिक्त सजगता नहीं बरतते, को अपनी गल्प-रचना से पाठक-मन को जुड़ा रखने के लिए कोई देशी व्यायाम, विदेशी एरोबिक्स या मिश्रित कसरतें करने की विवशता में पसीना नहीं बहाना पड़ता। उनकी रचना पाठक को बिना ठहरे पढ़ने के लिए एक आत्मीय आमंत्रण देती चलती है। उन्होंने इस संग्रह की कहानियों तक की अपनी सृजन-यात्रा में न केवल अपनी कहानी भाषा तय की है, मुहावरा बनाया है, बल्कि अदायगी और किस्सागोई का जाती अंदाज भी रचा है। इन्हीं संघटकों के ठोस आधार पर उनकी कहानी का स्थापत्य ऊंचा उठता है।
विज्ञापननुमा रंगीन मीडियाई समीक्षा के टुकड़ों में प्रगट अदाओं-अंगड़ाइयों के सहारे बौद्धिक आतंक सिरजने वाले लेखक पाठक को अपना लिखा पढ़ने के लिए ललचा भले ही लेते हों, लेकिन पाठक कितने जल्दी ऊब कर, पाठ छोड़ कर चल देगा, यह तमीज इन स्टार-कथाकारों में शायद नहीं है। माना कि इन सितारा-लेखकों ने नवमाध्यमो से फूट पड़ा रहे बाजारवाद की धमकी और धमाकों को तुरंत अपना लिया है, सतत प्रचार, प्रभावी पैकेजिंग, कुशल मार्केटिंग और प्रायोजक संस्थाओं का पल्लू पकड़ कर बाजार में पांव जमा लिये हैं, अपनी ब्रांड और माल खपाने की व्यवसायिक चतुराई दिखा दी है, और मुनाफे का बाजार हथिया लिया है। पाठकों का सहज रिश्ता अब भी सुबोध जैसे लेखकों के साथ जुड़ा हुआ है, जो कस्बों की कराहती प्राक्-आधुनिक जिंदगी का जायजा लेते हुए, व्यवस्था की नब्ज़ टटोलते हुए सादगी के साथ हिंदी की जातीय कहानी ही लिख रहे हैं। वे कहानी के सुपर मार्केट में कोई शक्तिमाननुमा पराक्रम दिखाने नहीं घुसते। अपनी विचारात्मक ऊर्जा और रचनात्मक मनीषा पर सुबोध को पूर्ण विश्वास है। इसी संग्रह की एक कहानी में कैरम खेलने के गुर के बहाने वे स्पष्ट करते हैं-शुरू से ही क्वीन के पीछे पड़ जाओगे तो अच्छा कैरम खेल नहीं पाओगे। जाहिर है कि सुबोध कुमार श्रीवास्तव कहानी के बाजार में कामयाबी की क्वीन जीत लेने से ज्यादा यकीन अच्छा लिखते रहने में करते हैं।
आदमी की हंसी गायब क्यों हो जाती है- ऐसे सवाल, ऐसी फिक्रें हैं, जो सुबोध को उद्वेलित करती हैं। कुछ ही दशकों पूर्व के सरल पुराने बाड़े को आज की बाहरी भव्यता वाली इंद्रपुरी में बदला हुआ देखना उनके लिए एक कष्टप्रद अनुभव है, जो उन्हें अतीत में ढकेल देता है। स्मृतियां और पांच दशकों का कालखंड उन्हें रह रह कर वापसी सफर में खींचता है। पूर्वजों की गरिमा के प्रति विस्मय और आदर उनमें है। ‘कुछ कुछ अपना’ (जनसत्ता, 20.02.2001) में यह खासे खरेपन के साथ उभरा है। अपने बचपन और बाल-सखाओं को याद रखने वाला उनका कथानायक, अपने बालपन के नायकों को चालीस साल बाद भी नायक ही पाता है। काल उनके कद को छोटा नहीं कर पाया। बूढ़े हो गये मगर वे बौने हो जाने से इनकार करते रहे। यदि सुबोध आज की मूल्यहीनता के बरक्स पुराने जर्जर से मूल्य भी बेहतर लगते हैं तो यह किसी मोह के चलते नहीं है। यह उनके अपने अनुभवों का निखोट निचोड़ है। आज की विखंडित मूल्यहीन, बाजारू जटिलताओं की तुलना में वे पुरानेपन की सादगी और विपन्नता को अच्छा समझते हैं। इसलिए इस संग्रह की कई कथाओं में उनका कथानायक उन जगहों, दोस्तों और दिनों की खोज में निकलता है जो चार-पांच दशक पीछे छूट गये हैं। जाहिर है कि पुरानी चीजों के साथ-साथ पुराना वक्त भी कभी पुराना और फीका नहीं पड़ता।
एक प्राचीन चीनी दार्शनिक का यह कथन भौगोलिक सीमा लांघ कर सुबोध की कहानियों में बोलता है-वे पुराने लोग सबसे ज्यादा अंधकारमय और हत्यारे वक्त में जिये, फिर भी उनसे ज्यादा खुशमिजाज और दोस्ताना लोग दुबारा नहीं हुए। कहानी के एक वाक्य पर ठहरें जिस मकान में हमारा लड़कपन बीतता है, हम उसे कभी भूल नहीं पाते। यह मकान मात्र शाब्दिक अर्थ ईंट, गारे, काठ का मकान नहीं है। इसके बनाव में अनेक तत्त्व शामिल हैं। आज के आपाधापी भरे मूल्यहीन जीवन में संत्रस्त आदमी, गहरी नींद की निश्चिंतता से भरपूर बीते हुए फक्कड़ दिनों की याद करता है। उन दिनों के रेत से बने चमकीले पत्थरों से अनमोल दिनों की याद। केंचुए सी रेंगती सुस्त जिंदगी के अपने मजे की याद। बचपन के समुद्र जैसे गहरे और रहस्य भरे दिनों में उतरना इस कथाकार को बहुत भाता है। इन कहानियों में नायक बड़ा भाई नहीं है, बड़ा भी नहीं है। अकसर उसे छुट्टन या छोटे कह कर बुलाया जाता है। सुबोध ईमानदारी के साथ वर्ग विभाजन में छोटे या हेय कहलाने वालों का पक्ष संभाले रहते हैं।
सुबोध छोटी कथा स्थिति को कहानी बना कर पेश करने वाले कथाकार नहीं हैं। वे लंबी कहानी वाले हैं, वरन् एक सीमा तक उनकी रचना का चरित्र औपन्यासिक होता है। ‘पानी के लिए’ (जनसत्ता, 22.03.98) में भी यादों के अलबम से एक बेहतरीन कालखंड लिया गया है जिसमें बचपन है और कस्बाई जिंदगी के चकमक पत्थर जैसे जादू भरे दिन हैं। दिल को झकझोर देने वाली रुलाई है। वे जिंदगी और दुनिया को पहचानने के बेजोड़ दिन थे जो आगे की लड़ाई लड़ने की जमीन पुख़्ता कर रहे थे। ‘आज मुझे कह लेने दो’ (जनसत्ता) में कथानायक बाबूजी हैं जिन्हें अन्याय बर्दाश्त नहीं होता था, वे उसका खुलकर प्रतिरोध करते थे। इस कहानी में प्रशासकों-/नौकरशाहों का चेहरा उघड़ता है। कलेक्टर पर भीड़ से आने वाला एक नन्हा सा पत्थर फायरिंग के निर्मम आदेश में बदल जाता है और प्रदर्शनकारियों में से दो लोगों को मौके पर ही मार देता है। एक होनहार युवक की आंखें भी चली जाती हैं।
‘मम्मी-पापा’ (वर्तमान साहित्य) में गरीब मजदूर लोग हैं, जिनके लिए स्वाद मुंह में बैठी जीभ तय नहीं करती, उनके लिए स्वाद पेट में होता है, मगर शहर की मम्मी-पापा संस्कृत ने उनके भाषाई संसार का भी अतिक्रमण कर लिया है। ‘महालक्ष्मी का हाथी’ (वागर्थ, मार्च-अप्रैल, 95) कुम्हारिन काकी की शक्ल में अपनी लड़ाई खुद लड़ता गरीब है। उसके शब्दों में दर्द का पहाड़ भी था और मेहनत का करिश्मा। यह वाक्य सुबोध के लेखन पर भी सटीक बैठता है। अनचीन्ही चिरैया की तरह फुर्र हो गये बचपन के दिन यहां भी हैं। ये तमाम कहानियाँ बताती हैं कि किस तरह लेखक सहज कहानी को व्यवहारिक रूप दे देता है। हाशिये पर पड़ा जीवन उसकी लेखकीय संवेदना को लगातार चुनौती देता प्रतीत होता है और उसके यत्नपूर्वत संचित अनुभव कहानी में ढल जाते हैं। 1996 की श्रेष्ठ हिंदी कहानियां में प्रख्यात कथाकार महीप सिंह द्वारा सम्मिलित की गयी ‘आवर्त दशमलव’ जो पहल में प्रकाशित हुई थी, 6 दिसंबर, 92 के उत्तरकाल की एक मर्मस्पर्शी कथा है। ‘बिन बाप के’ (कहन-3) व्यंग्य की तीखी धार, पुलिस के कदाचार और सर्वहारा बच्चों की बेचारगी, असहायता का बयान है। ‘धक्का’ (पहल-42) में छोटी-छोटी लड़ाइयों और मामूली हार-जीतों के बीच लड़ रही मजदूरनी है, राशन दुकान से एक लीटर मिट्टी का तेल ले लेने में उसका विजय भाव देखते बनता है।
वह अपनी अनुभव-जनित वर्गीय समझ से लैस भी है। कस्बाई लुनाई और आंचलिक भोलेपन में लिपटी ये कहानियां हैं जिनमें कस्बाई प्रेम घड़े भर भर कर उड़ेला गया है।
इन कहानियों से गुजरते हुए आप पायेंगे कि इनके लेखक में एक स्वाभाविक तीखापन, सादा ‘व्यंग्य-बोध, स्पष्ट राजनैतिक परिप्रेक्ष्य, उपेक्षितों-वंचितों के प्रति सहज संवेदना के साथ साथ सुचिंचित और पुष्ट पक्षधरता है। साथ ही कथा-लेखन में निहित जो अतिरिक्त अनुशासन की मांग होती है, वह भी सुबोध में है। यह कथाशिल्पी कहन-कौशल या कथानक के करिश्माई कायाकल्प की चाह में न तो उत्तर-आधुनिक मुद्राएं ओढ़ता है, न ही पत्रकारिता या कविता के सफल अवयवों-तत्त्वों से कहानी का घोल बनाता है। वह दृश्य-माध्यमों के क्षणिक प्रभावों से आतंकित नहीं है, न ही बाजारवाद के लुभावने फरेब उसे फांस पाये हैं। पश्चिमी या वैश्विक मानदंडों की चाबुक खा कर अटपटी रफ्तार में दौड़ पड़ने वाला कथाकार भी यहां नहीं है। नतीजतन सुबोध की कहानियों में कहानीपन का त्याग नहीं है। उनकी कथा रचना के ताने-बाने में ही नहीं, उसके समग्र प्रभाव में भी कहानीपन साफ चमकता है। हिंदी की जातीय अस्मिता और परंपरा की पहचान की अनेक कहानियों से हम और पाठकगण भली भांति परिचित हैं। संघर्ष, द्वंद्व, सामाजिकता-बोध जनवादी समझ और यथार्थवादी दृष्टि मिल कर सुबोध की ताकत बनाते हैं। अपनी प्रक्रिया में ही अपना अर्थ अर्जित करने वाली कथा-सर्जना मानो सुबोध की प्रकृति में है।
221/9वी, साकेत नगर
भोपाल-462024 (म.प्र.)
भोपाल-462024 (म.प्र.)
-ओम भारती
कब आयेगा तीसरा हार्ट अटैक
वे दिन बड़े फक्कड़ थे। गहरी नींद की निश्चिंतता से भरपूर। मुझे याद है,
उन दिनों हमारे शहर में बिजली के खंभे भी नहीं खड़े थे। सूरज के डूबने के
साथ ही शहर धीरे-धीरे गहरे अंधकार की ओर बढ़ने लगता था और मैं अपने कुछ
दोस्तों के साथ किसी जुगनू को देख कर उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागने
लगता था। कमीज़ की जेब में जुगनू को रख लेता था और उसका टिमटिमाना देखता
रहता था। शहर में बिजली नहीं थी, लेकिन मेरी जेब में एक बल्ब जलता-बुझता
रहता था। शहर के मुख्य चौराहों पर नगरपालिका के कर्मचारी खंभों पर लटकी
लालटेनें जला जाते थे। कुछ लड़के चौराहों पर लटकी लाटटेनों के जलने की
प्रतीक्षा करते रहते थे। वे खंभों के नीचे बैठ कर पढ़ा करते थे और जब तक
लालटेन में तेल रहता था, उनकी पढ़ाई चलती रहती थी। उन लड़कों को हम लोग
पढ़ंतू कहा करते थे। बहुत बाद में या यूं कहूं कि एक लंबे अरसे बाद मुझे
मालूम हुआ था कि उन पढ़ाकू लड़कों में से एक मैट्रिक की परीक्षा में मेरिट
में आया था और बाद में सिविल जज हो गया था। एक दूसरा लड़का डिप्टी कलेक्टर
भी हुआ था। पढ़ने में गधे लड़कों को बुज़ुर्गों के द्वारा उन दोनों
संघर्षशील लड़कों के उदाहरण दिए जाते थे। उन लड़कों के नाम ले कर कई बार
घर पर मेरे भी कान ऐंठे गये थे। मैं पढ़ने में गधा तो नहीं था, लेकिन
घोड़ा भी नहीं था।
सन् 1950 के आसपास मेरी उम्र सात-आठ वर्ष की थी। इस उम्र से पहले घटी दो घटनाएं मेरी याददाश्त में आज भी जीवित हैं। गांधी जी की मृत्यु और उसके बाद पिता की मृत्यु। हमारे शहर और परिवार में जो वीरानी उन दिनों छा गयी थी, वह आज भी पिछले दिनों में लौटने पर, मेरी आंखों की पुतलियों में उतर आती है।
गांधी जी की मृत्यु की ख़बर हमारे छोटे से शहर में कैसे पहुंची थी, मुझे नहीं मालूम। शहर में बिजली नहीं थी। और रेडियो समाचार का कोई प्रश्न ही नहीं था। शहर के सारे लोग गुमसुम थे। बूढ़ों की आंखों में पानी था और युवकों की आंखों में ग़ुस्सा। मैंने मां से पूछा था, ‘बाई, बापू के मरने की ख़बर इतनी दूर से यहां इतनी जल्दी कैसे आ गयी ?’
यूं हमारे पिताजी पक्के हिंदू महासभाई थे, पर पूरे देश की तरह हमारे परिवार में भी गांधी जी के प्रति बड़ा श्रद्धाभाव था। जब परिवार के हमउम्र बच्चों में कोई झगड़ा होता और कोई बच्चा झूठा बोलता तो दूसरा उससे कहता, ‘तुम गांधी बब्बा की क़सम खा कर कहो कि तुम झूठ नहीं बोल रहे हो।’ गांधी जी का इतना असर हम बच्चों पर था कि कोई भी उनके नाम की झूठी क़सम नहीं खाता था। बाई ने मुझे बतलाया था कि हवाई जहाज़ से छपे हुए परचे गिराये गये हैं और उनमें नाथूराम गोडसे द्वारा गांधी जी को गोली से मार डालने की ख़बर है। मुझे यह भी बतलाया गया था कि बापू के मुंह से अंतिम समय में भी राम का नाम निकला था।
कोई परचा मैंने नहीं देखा था और देख भी लेता तो उसे पढ़ नहीं सकता था। तब तक मेरा नाम स्कूल में नहीं लिखा था और मेरा अक्षरज्ञान ‘अ, आ, इ, ई....’तक ही सीमित था। बाई ने मुझे सच ही बतलाया होगा। नाथूराम गोडसे हत्यारा है, उसने महात्मा गांधी की हत्या की है, यह बात मेरे अबोध मन पर अंकित हो गयी थी और गांधीवादी विचारधारा का अनुयायी न होने के बावजूद आज तक यथावत् है।
गांधी जी की हत्या के एक वर्ष बाद ही मेरे पिता जी का निधन हो गया था। वे शहर के नामी वकील थे और नगरपालिका अध्यक्ष भी थे। पिता की मृत्यु के बाद मेरे जीवन की पटरी बदल गयी थी। एक अर्थ में सुपर फास्ट एक्सप्रेस ट्रेन पैसेंजर की गति से रेंगने लगी थी, पर केंचुए सी रेंगती हुई उस ज़िंदगी के अपने मज़े थे। वे, उन दिनों के रेत से बीने चमकीले पत्थरों से, अनमोल दिन थे।
उन दिनों मुहल्ले के लड़कों की एक अच्छी-ख़ासी टोली थी। इस टोली ने ही उन दिनों को अनमोल बना दिया। नानी, पुट्टू, झगड़ू, कल्लू, अनिल, विमल, मुल्लू, केदार, ब्रदी, मैहर और जिंदी की याद मुझे आज भी है। वे भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना काल के हमारे सुनहरे दिन थे। पंडित नेहरु को देश ने नेता मान लिया था। लेकिन हमारी टोली का नेता नानी था। उम्र में वह मुझसे चार-पांच साल बड़ा था। टोली में मेरी उम्र सबसे कम थी और इसके अपने नफ़ा-नुक़सान थे। जब कभी किसी खेल में छोटा होने के नाते मुझे शामिल नहीं किया जाता था तो मैं रोना शुरू कर देता था और हम भी खेलेंगे, नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे’ का अलाप रटने लगता था। परंतु नानी के यह कहने पर कि वह मुझे भूत भगाने वाला मंत्र नहीं बतलायेगा, मैं सहमे हुए बच्चे की तरह चुप्पी साध लेता था। खेलने की इच्छा मरती नहीं थी। सो सिसकते हुए कहता था, ‘मेरे पिता जी मर गये हैं न इसलिए तो तुम लोग मुझे अपने साथ नहीं खिलाते हो।’
मेरा यह भावुक वाक्य नानी को पिघला देता और मुझे खेल में हिस्सेदारी मिल जाती। वह घोषणा कर देता कि छुट्टन खेलेगा। लेकिन खेल में मेरी दूध की गुइयां रहती। इस तरह मैं दो दलों में बंटे हुए खिलाड़ियों के लिए काम-चलाऊ खिलाड़ी की हैसियत पा लेता। यदि खेल के बीच किसी खिलाड़ी को टट्टी लग आती तो उसकी जगह मुझे मिल जाती। यह उन दिनों की मेरी घनघोर उपलब्धि थी। कामचलाऊ प्रधानमंत्री को भी अपने पद से चिपके रहने पर उतनी ख़ुशी नहीं हुई होगी, जितनी मुझे बचपन में दूध की गुइयां बनने पर होती थी। उन दिनों के हमारे तीन प्रिय खेल थे-चर्रा, गड़ागेंद और छईछवाल। बाद में हम छईछवाल को लुकाछिपी कहने लगे थे। शायद हमारी शाब्दिक सभ्यता का वह पहला चरण था।
चर्रा हमारे घर के सामने होता था। हम शाम चार बजे मैदान सींचते और पानी की मोटी धार से आठ खाने बना देते। पर यह खेल कभी भी घंटे-डेढ़ घंटे से अधिक समय तक नहीं खेल पाते थे। शाम को घर के बड़े लोग आ जाते थे और बेंच व कुर्सियां निकाल कर मैदान में जम जाते थे। हम लोगों के चर्रा की चर्र...चर्र उन्हें गुस्सा दिला देती थी और किसी न किसी की कनपटी पर एक थप्पड़ पड़ जाता था।
सन् 1950 के आसपास मेरी उम्र सात-आठ वर्ष की थी। इस उम्र से पहले घटी दो घटनाएं मेरी याददाश्त में आज भी जीवित हैं। गांधी जी की मृत्यु और उसके बाद पिता की मृत्यु। हमारे शहर और परिवार में जो वीरानी उन दिनों छा गयी थी, वह आज भी पिछले दिनों में लौटने पर, मेरी आंखों की पुतलियों में उतर आती है।
गांधी जी की मृत्यु की ख़बर हमारे छोटे से शहर में कैसे पहुंची थी, मुझे नहीं मालूम। शहर में बिजली नहीं थी। और रेडियो समाचार का कोई प्रश्न ही नहीं था। शहर के सारे लोग गुमसुम थे। बूढ़ों की आंखों में पानी था और युवकों की आंखों में ग़ुस्सा। मैंने मां से पूछा था, ‘बाई, बापू के मरने की ख़बर इतनी दूर से यहां इतनी जल्दी कैसे आ गयी ?’
यूं हमारे पिताजी पक्के हिंदू महासभाई थे, पर पूरे देश की तरह हमारे परिवार में भी गांधी जी के प्रति बड़ा श्रद्धाभाव था। जब परिवार के हमउम्र बच्चों में कोई झगड़ा होता और कोई बच्चा झूठा बोलता तो दूसरा उससे कहता, ‘तुम गांधी बब्बा की क़सम खा कर कहो कि तुम झूठ नहीं बोल रहे हो।’ गांधी जी का इतना असर हम बच्चों पर था कि कोई भी उनके नाम की झूठी क़सम नहीं खाता था। बाई ने मुझे बतलाया था कि हवाई जहाज़ से छपे हुए परचे गिराये गये हैं और उनमें नाथूराम गोडसे द्वारा गांधी जी को गोली से मार डालने की ख़बर है। मुझे यह भी बतलाया गया था कि बापू के मुंह से अंतिम समय में भी राम का नाम निकला था।
कोई परचा मैंने नहीं देखा था और देख भी लेता तो उसे पढ़ नहीं सकता था। तब तक मेरा नाम स्कूल में नहीं लिखा था और मेरा अक्षरज्ञान ‘अ, आ, इ, ई....’तक ही सीमित था। बाई ने मुझे सच ही बतलाया होगा। नाथूराम गोडसे हत्यारा है, उसने महात्मा गांधी की हत्या की है, यह बात मेरे अबोध मन पर अंकित हो गयी थी और गांधीवादी विचारधारा का अनुयायी न होने के बावजूद आज तक यथावत् है।
गांधी जी की हत्या के एक वर्ष बाद ही मेरे पिता जी का निधन हो गया था। वे शहर के नामी वकील थे और नगरपालिका अध्यक्ष भी थे। पिता की मृत्यु के बाद मेरे जीवन की पटरी बदल गयी थी। एक अर्थ में सुपर फास्ट एक्सप्रेस ट्रेन पैसेंजर की गति से रेंगने लगी थी, पर केंचुए सी रेंगती हुई उस ज़िंदगी के अपने मज़े थे। वे, उन दिनों के रेत से बीने चमकीले पत्थरों से, अनमोल दिन थे।
उन दिनों मुहल्ले के लड़कों की एक अच्छी-ख़ासी टोली थी। इस टोली ने ही उन दिनों को अनमोल बना दिया। नानी, पुट्टू, झगड़ू, कल्लू, अनिल, विमल, मुल्लू, केदार, ब्रदी, मैहर और जिंदी की याद मुझे आज भी है। वे भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना काल के हमारे सुनहरे दिन थे। पंडित नेहरु को देश ने नेता मान लिया था। लेकिन हमारी टोली का नेता नानी था। उम्र में वह मुझसे चार-पांच साल बड़ा था। टोली में मेरी उम्र सबसे कम थी और इसके अपने नफ़ा-नुक़सान थे। जब कभी किसी खेल में छोटा होने के नाते मुझे शामिल नहीं किया जाता था तो मैं रोना शुरू कर देता था और हम भी खेलेंगे, नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे’ का अलाप रटने लगता था। परंतु नानी के यह कहने पर कि वह मुझे भूत भगाने वाला मंत्र नहीं बतलायेगा, मैं सहमे हुए बच्चे की तरह चुप्पी साध लेता था। खेलने की इच्छा मरती नहीं थी। सो सिसकते हुए कहता था, ‘मेरे पिता जी मर गये हैं न इसलिए तो तुम लोग मुझे अपने साथ नहीं खिलाते हो।’
मेरा यह भावुक वाक्य नानी को पिघला देता और मुझे खेल में हिस्सेदारी मिल जाती। वह घोषणा कर देता कि छुट्टन खेलेगा। लेकिन खेल में मेरी दूध की गुइयां रहती। इस तरह मैं दो दलों में बंटे हुए खिलाड़ियों के लिए काम-चलाऊ खिलाड़ी की हैसियत पा लेता। यदि खेल के बीच किसी खिलाड़ी को टट्टी लग आती तो उसकी जगह मुझे मिल जाती। यह उन दिनों की मेरी घनघोर उपलब्धि थी। कामचलाऊ प्रधानमंत्री को भी अपने पद से चिपके रहने पर उतनी ख़ुशी नहीं हुई होगी, जितनी मुझे बचपन में दूध की गुइयां बनने पर होती थी। उन दिनों के हमारे तीन प्रिय खेल थे-चर्रा, गड़ागेंद और छईछवाल। बाद में हम छईछवाल को लुकाछिपी कहने लगे थे। शायद हमारी शाब्दिक सभ्यता का वह पहला चरण था।
चर्रा हमारे घर के सामने होता था। हम शाम चार बजे मैदान सींचते और पानी की मोटी धार से आठ खाने बना देते। पर यह खेल कभी भी घंटे-डेढ़ घंटे से अधिक समय तक नहीं खेल पाते थे। शाम को घर के बड़े लोग आ जाते थे और बेंच व कुर्सियां निकाल कर मैदान में जम जाते थे। हम लोगों के चर्रा की चर्र...चर्र उन्हें गुस्सा दिला देती थी और किसी न किसी की कनपटी पर एक थप्पड़ पड़ जाता था।
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लोगों की राय
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